सिरदर्द बन गई पाठशाला: हॉस्टल की रैगिंग ने बचपन छीना

कानपुर के संदीप का बचपन नशे और सीनियर्स की बेरहमी में कट गया। पिता की मौत के बाद मां ने सुधार की आशा में दस साल के संदीप को शहर के एक हॉस्टल में भेजा, लेकिन वहां उसे हिंसा, मानसिक प्रताड़ना और अभद्र व्यवहार का सामना करना पड़ा। सीनियर्स ने उसके घर का खाना छीन लिया, गंदे कपड़े धुलवाए, कमरा साफ करवाया और एक बार हँसने पर चप्पल से पीटा भी। जब संदीप ने मां को अपनी तकलीफ बताई तो उन्हें यकीन नहीं हुआ और वे उसे वापस नहीं ले आईं, जिससे युवक और अधिक टूट गया और डिप्रेशन में चला गया।
इन परिस्थितियों के बावजूद संदीप ने पढ़ाई जारी रखी। आज 25 वर्षीय वह दिल्ली में UPSC की तैयारी कर रहा है और साथ में एक निजी कंपनी में नौकरी भी करता है ताकि पढ़ाई का खर्च चल सके। वह कहता है कि उन दिनों की चोटें गहरी हैं — आज भी उसे जल्दी किसी पर भरोसा नहीं होता और एंग्जाइटी रहती है — पर उसी दर्द ने उसे खुद सुधारने और अपने परिवार का नाम ऊँचा करने की ठान दी। वह अन्य बच्चों से अपील करता है कि वे अपने मां-बाप से खुलकर बात करें और अपनी परेशानियों को बताएं।
विशेषज्ञों का मानना है कि परिवारों को बच्चे भेजने से पहले उनकी बात समझनी चाहिए और हॉस्टलों में निगरानी, साइकोलॉजिकल सपोर्ट तथा रैगिंग-रोधी कड़े नियम लागू करने चाहिए, ताकि बच्चे सुरक्षित वातावरण में पढ़ाई कर सकें। संदीप का अनुभव उन कई बच्चों की कहानी है जिनका बचपन संरक्षण की बजाय शोषण में बीता — और यह सचेत करता है कि शिक्षा संस्थानों में बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता देना अब अनिवार्य है। अब वह सामाजिक सकारात्मक बदलाव लाने का संकल्प लेते हैं।