बचपन में माँ-बाप का सहारा, बुढ़ापे में कौन बनेगा सहारा?
सवाई माधोपुर।
समाजसेवी कानसिंह ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए कहा कि जिस तरह बचपन में माँ-बाप बच्चों की देखभाल करते हैं, उसी तरह बुढ़ापे में उनकी देखभाल की जिम्मेदारी भी बच्चों की होनी चाहिए। उनका कहना है कि जब बच्चे छोटे होते हैं, तो माता-पिता उनकी हर जरूरत का ध्यान रखते हैं। लेकिन जब वही माता-पिता बुढ़ापे में सहारे की जरूरत महसूस करते हैं, तो अक्सर उपेक्षा का सामना करते हैं।
बुजुर्गों की उपेक्षा पर चिंता
कानसिंह ने कहा कि आज की समाज व्यवस्था में युवा पीढ़ी और वरिष्ठ जनों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। युवा अपनी शक्ति और सफलता में खोकर भूल जाते हैं कि उनके जीवन की नींव उन्हीं बुजुर्गों ने रखी है, जिन्होंने त्याग और परिश्रम से उनके लिए यह वातावरण तैयार किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है, और बुजुर्गों को सहारे और सम्मान की जरूरत होती है।
अनुभव की अहमियत
उन्होंने कहा कि बुजुर्गों के पास अनुभव की अनमोल संपदा है, जो युवाओं के मार्गदर्शन के लिए जरूरी है। जब युवा पीढ़ी विनम्रता और सद्भाव से बुजुर्गों के अनुभव का लाभ उठाती है, तो न केवल बुजुर्गों को खुशी होती है, बल्कि समाज भी प्रगति करता है।
यूज एंड थ्रो मानसिकता से बचें
कानसिंह ने चेतावनी दी कि "यूज एंड थ्रो" मानसिकता अपनाने से समाज में नैतिक पतन होगा। अगर बुजुर्गों का सम्मान और देखभाल नहीं की गई, तो आने वाले समय में यही स्थिति युवा पीढ़ी के साथ भी हो सकती है।
समन्वय की आवश्यकता
उन्होंने कहा कि यह समय विचारों और पीढ़ियों के बीच समन्वय का है। जब अनुभव और युवा शक्ति एक साथ मिलते हैं, तो नए इतिहास रचे जाते हैं। सम्मान तात्कालिक नहीं, बल्कि समर्पण और सहानुभूति के साथ होना चाहिए।
निष्कर्ष
कानसिंह ने सभी से अपील की कि बुजुर्गों को उपहास का पात्र न बनाकर उनकी सेवा करें और उन्हें सहारा दें। उनका अनुभव समाज के लिए मार्गदर्शक है और उनके सम्मान से ही समाज में सच्ची प्रगति संभव है।
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